Monday, December 15, 2014

आदमी

गिर रहा था आदमी
ना रुका वह ना थमा
गिर चुका था आदमी

Sunday, December 14, 2014

हिचकियाँ

कहती थी तू ही
याद करता है कोई
तो आती हैं हिचकियाँ
क्या सताती हैं
तुझको भी हिचकियाँ
माँ

Friday, December 12, 2014

धर्म गरीब का

#१
वखत मिले दो रोटी, फ़कत एक हो चादर
नहीं फर्क फिर पंडित, क़ाज़ी या हो फादर

#२
कुरान पढ़ूँ मैं जपूँ पुराण
भजन भजूँ दूँ रोज़ अजान
गर ढके बदन हो जठर शांत
रब धर्म वही जो दे सम्मान

Saturday, November 22, 2014

जबाँ

जड़ हैं जो बाटें जबाँ को जबाँ से
जबाँ ही तो बांधे जहाँ को जहाँ से

Friday, October 24, 2014

करवा का चाँद

चाँद बेरहम था "करवा" रहा इंतज़ार उन्हें
और हम बेशरम करते रहे दीदार-ए-चाँद

Wednesday, October 22, 2014

शुभ दीपावली

जल धूप अगन पग तप्त नगन
छत सखत गगन अध ढके बदन

हर पर्व सफल गर तृप्त उदर
हर दीप जगन गर खिले अधर

Wednesday, October 8, 2014

ओ गिरते पत्ते

ओ गिरते पत्ते
कैसा था वह क्षण
जब तुम अलग हुए
पेड़ से

क्या तुम सूख चुके थे
और इंतज़ार में गिरने के
या थे हरे जीवन भरे
जीने को लालायित

क्या अन्य पत्तों को होता है
दुःख खोने का हरे पत्तों को
या खोने का हर पत्ते को
या होते हैं वह व्यस्त

क्या तुम भी थे व्यस्त
स्पर्धा में जीवन की
बटोरते किरणें
जुटाते आहार

क्या हुआ उस क्षण
बंद हुई सिर्फ साँसें
या तजा तुमने
आत्मा को

क्या सच होती है आत्मा
या है मिथ्या भ्रम
तुष्टि के लिए
पत्ते के अहम की

क्या मन था परेशान
की गिरोगे धरा पर
उड़ जाओगे हवा में
या बनोगे भक्ष्य पशु का

स्वर्ग है कौन सी अवस्था
क्या सच होते हैं स्वर्ग नर्क
या भ्रांति अच्छे पत्तों की
और भय बुरे पत्तों का

ओ गिरते पत्ते
कैसा था वह क्षण
जब तुम अलग हुए
पेड़ से

बापू की लाठी

बापू तेरी लाठी दे दे
चलूँ कूच ले उसे अथक
करूँ विफल जो शक्ति धूर्त
रक्त रक्त से करे पृथक

बापू तेरी लाठी दे दे
मानवता का हो सम्बल
दीन हीन ना रहे महीन
मूक मुखर हो अबल प्रबल

Tuesday, October 7, 2014

मन मेरा

विचारों का झरना
सवालों की झंझा

सपनों का जंगल
भावों की दलदल

अहम् का टीला
वहम् की लीला

एक सृष्टि समेटे
मन है मेरा

Sunday, October 5, 2014

नफ़रतें

#१
थे काँटे उगाए हिफ़ाज़त को जिसकी
क्यों भेदा क्यों छेदा उसी पँखुड़ी को

#२
थी जिससे निभाई नफ़रतें उम्र भर
क्यों हँसता रहा आईने से वो ज़ालिम

Thursday, September 25, 2014

जिगरे की पुकार

हानि से या लाभ से
तटस्थ जीत हार से
धर कदम दहाड़ कर
जिगरे की पुकार पर

ध्यान मात्र लक्ष्य जो
तो राह स्व प्रशस्त हो
भर प्रबल छलाँग वो
सो आसमाँ निरस्त्र हो

Friday, September 5, 2014

कविता लगी थी

नींद बैठी धरने पर
तजा धैर्य करवटों ने
रूह लगी गुड़गुड़ाने
जोर से कविता लगी थी

:)

Monday, August 18, 2014

संतुष्टि

लालसा न नीयत
न विरासत वसीयत
हैं संतुष्ट फिर भी
पशु पंछी पौधे
और हम?

Friday, August 15, 2014

भारत (2)

कड़ी बड़ी यह डगर मगर
उत्स्फूर्त उदित विश्वास है
सद्भाव सृजन सौहार्द शील
भारत जगत हित आस है

Tuesday, August 12, 2014

भारत

रंग सात
गहरे भी
हल्के भी
अपूर्ण
अशांत

रंग श्वेत
न गहरा
न हल्का
पूर्ण
शांत

रंग श्वेत
जैसे भारत
घोले समेटे
रंग सात

जीवन मूल्य

जीते हैं विरले ही मूल्यों पर मर कर
वरना तो जीते है बहुतेरे मर मर कर

Monday, August 11, 2014

पूजा

खुश हो कैसे भगवान
धूप दीप जयगान
या निर्बल उत्थान

Sunday, August 3, 2014

अति लघु कविता

क्या कहते हैं
उस कविता को
जो हो अति लघु
'ट्वीट' की तरह
जीवन?

पिता

सूर्य जलाता
खुद को
जैसे पिता
देता रौशनी

दिल

दिल
बंद फैलाए विष
खुला समाए विश्व

किस्मत

पतंग उठती
खींचने पर
जैसे हो किस्मत
बंधी धागे से
श्रम के

Tuesday, July 29, 2014

खुदा

खोजा जहाँ सारा
वो रहा जुदा
छुआ खुद को
मैं हुआ खुदा

Sunday, July 27, 2014

दरारें

अभी तो हटाई थी हमने फफूंदी
है मरहम दरारों पर ताज़ा अभी
फ़िर क्यों चटखने लगी हैं दीवारें


क्यों सहमी खड़ी है हवाएँ शहर की
पंछी दरख्तों से
घबराए है क्यों
फिर से जलाई है चिंगारी किसने

Friday, July 25, 2014

कसक

#१

मुस्कराते हैं क्यों ये ज़रुरत से ज्यादा
इन होठों का भी कुछ ईमान तो होगा

#२

बयाँ है अलग सा उन आँखों के नीचे
कसक झांकती है ठहाकों के पीछे

साथी

करे न करे हमको शामिल ख़ुशी में
पर आएंगे ग़म में तेरे बिन बुलाये


रहें ना रहें गर अंधेरों में साये
जुगनू मिलेंगे रास्तों को सजाये



Wednesday, July 23, 2014

राख

मरघट की राख
मरे हुए इंसान की
या मारे हुए पेड़ की

शायद पेड़ की राख
क्योंकि थी अशांत
नहीं समझ पाई क्यों 
मारा जलाया उसे
अकारण

या थी इंसान की आँख
क्योंकि थी अशांत
नहीं समझ पाई क्यों 
जलाया उसे अकारण 
वरना देती रोशनी
किसी नेत्रहीन को

Monday, July 21, 2014

सच

देखा सुना सब है माया
सच सुविधा का है जाया

पेड तोता

जंगल
जंगल में तोता
उन्मुक्त तोता
पर खाता दाना
मालिक का

जंगल
जंगल में पेड़
पेड़ गिरा
तोते ने देखा
गिरे पेड़ को
फिर मालिक को
कुल्हाड़ी लिए

जंगल
जंगल में टीवी
टीवी पर
तोते ने कहा
नहीं गिरा पेड़
था ही नहीं पेड़

जंगल
जंगल में बंदर
रहता था
पेड़ पर
वही पेड़ जो
था ही नहीं

जंगल
जंगल में प्राणी
बन्दर कूदा
कहा पेड़ तो था
कहा "पेड तोता"
तोता बोला
स्वाँग है

जंगल
जंगल में जज
मालिक बोला
हुई मानहानि
बंदर अंदर

जंगल
जंगल में तोता
उन्मुक्त तोता

Saturday, July 19, 2014

सय्यम

साँसों की मज़बूरी या आँखों की खुद्दारी
आँसू का बहना गवारा नहीं

सजाया है दर्द भी इनाम की तरह
ठुड्ढी का हिलना गवारा नहीं

तो यह न होता

आज अख़बार में छपा है
टीवी पर चर्चा भी हो रही है
मेरे बारे में
नहीं मेरे रेप के बारे में

कुछ लोग क्षोभित हैं
कुछ क्षोभ जता रहे हैं
कुछ कहते है सरकार है दोषी
पर मैं जानती हूँ सरकार नहीं थी वहाँ
सरकार कहीं नहीं थी
होती तो यह न होता



वो मेरा नाम नहीं लेते
रेप के बाद नहीं रहता नाम
न रहती है उम्र
बच्ची बन जाती है महिला
कोई कल नहीं होता
रह जाता है केवल एक कल
केवल एक कलंक

कुछ कहते हैं कोई और दोषी है
पर इसका पता एक ब्रेक के बाद चलेगा
तब तक आप विज्ञापन देखिये
रंगीले पानी का विज्ञापन
रंगीले पानी में आम नहीं है
पर विज्ञापन में आम है
एक अभिनेत्री भी है
वो आम नहीं है
शायद वो आम खा रही है
अभिनेत्रियां ऐसे ही खाती है
इसीलिए आम को भाती है

आम जो कभी कभी
मोमबत्तियाँ भी जला लेते हैं

विज्ञापन ख़त्म
चर्चा में नए लोग आ गए
पिछलों को जाना था दूसरे स्टूडियो
जहाँ से ये नए लोग आये है
ये कहते हैं समाज का दोष है
पर समाज कहाँ था
वहाँ नहीं था
होता तो यह न होता

अब चर्चा जोरों पर है
कुछ लोग क्रोधित हैं
कुछ क्रोध जता रहे हैं
कुछ चिल्ला रहे हैं
कुछ की नज़र टी आर पी पर है
यह चर्चा मेरे बारे में है
नहीं मेरे रेप के बारे में है
पर मैं कहाँ हूँ इस चर्चा में
मैं कभी नहीं होती
होती तो यह न होता




भिखारी

काँच के उस ओर खड़ा
वह जीव कौन सा है
दीखता मानव सा
डरावना भूखा

क्या सच में है भूखा
या स्वाँग है
दूँ या ना दूँ
छोटा है
कौन सा गुनाह

चलो बत्ती हरी हुई
चीख़ने लगी गाड़ियाँ
और उनके अंदर बैठे जीव
सारे मानव से
डरावने भूखे

Friday, July 18, 2014

बलिदान

नहीं होगा तम ख़त्म तारो के दम पर
सूरज को तिल तिल खोना ही होगा

कीचड के कतरों से कतराएं कब तक
ये मंदिर किसी को तो धोना ही होगा

Monday, July 14, 2014

कंधे

कंधे
चलते दौड़ते
थमे कुछ
चले लेकर
ठहरी साँसों को
लिपटा कर
लपटों में
फिर लगे
चलने दौड़ने
कंधे

सत्य

ऐ सत्य मैंने देखा है तुम्हें
जीवन की पहली किलकार में
और मृत्यु की ठहरती रफ़्तार में

सुख

साधन में सुख खोजता खुद ही खोता जाय
खुद में खोया साधु जो सुख में सो उतराय

एक परिभाषा कविता की

मिश्री मीठी तप्त अंगीठी
मरहम लेप कटु आक्षेप
तरल सतह की गूढ़ थाह
अल्प वाक्य अतिशय प्रभाव

Tuesday, May 13, 2014

जुगलबंदी अभिषेक दुबे के साथ # २

अभिषेक :
काशी तो भइया उनकी, माँ गंगा जिनके साथ,
चाहे हरहर बोल लो, या नमो नमो विश्वनाथ

स्वयं  :
काश काशी जाते करते श्री नमो स्नान
पाप औ अभिशाप धोते थोथा तज अभिमान
साफ़ नीयत हो तो करती माँ सदा सम्मान
धर्म पर दुष्कर्म करते नासमझ बेईमान
दिनेश अग्रवाल (अभिषेक के मित्र):
नमो को रोने वालो, देखो कजरी का धर्म
थर्ड फ्रंट को सपोर्ट दे ने में ना आ रही शर्म

स्वयं  :
तय विजय तो अशांति क्यों
क्रान्ति पर यह भ्रान्ति क्यों


चाहे जितना हो प्रबल
झूठ गिरता सिर के बल

अभिषेक :
पाप धोते हैं पापी, अधर्म जिनके काज
क्यों छलेगा वो, जो प्रिय सकल समाज!!!
स्वयं :
जो सहज निश्छल बुलाती माँ उन्हेँ ही हर्ष से
बाकी कतराते हैं डरते गंगा माँ के स्पर्श से


कर चुके दूषित तुझे वो पाप बल औ छल
चली झाड़ू बही गंगा साफ़ अब कल कल


अभिषेक :
माँ के निश्छल स्पर्श को, जो देते राजनिती का नाम,
स्विकार पराजय अपनी, करते भीषण साम दाम
स्वयं :
हर हर औ गंगे को करें न दूषित दुष्काज से
है यही विनती नमो औ नमो भक्त समाज से


ना खिले मल में कमल है महज यह आस
हो अमन औ मन मिले हो चहूँमुखी विकास

अभिषेक :
नमो समाज एक नाम, जन जन के विश्वास का,
अाश का, आगाज का, विकास के परिभाष का !!
स्वयं :
दोषी दंडित करते खंडित नमो नाम विश्वास
काला धन सींचे जिसे उस वृक्ष से क्या आस

अभिषेक :
वह तर्क व्यर्थ होता, जहाँ प्रबल न हो प्रमाण,
वह गर्व व्यर्थ होता, जो दे न सके सम्मान!!
स्वयं :
कैसे जागे नीँद का जो रच रहा हो स्वांग
गाड़ सिर को रेत में औ पी नमो की भाँग


अस्सी प्रतिशत धन का जिनके ओर है न छोर
सौ में चालीस दागी दोषी खूनी है या चोर

अभिषेक :
अब बोलो उसको अवसाद या, बोलो विकट अभिशाप
प्रधान पद विराज गया वो, बिमार करें विलाप
स्वयं :
प्रधान के प्रचार में उद्यम करें निवेश
कब हुए आज़ाद हम अपना कब था देश
आज डीजल दाम उछला कल बढेगी गैस
फ़िक्र क्यों प्रलाप कैसा अब हमारे ऐश

अभिषेक :
हे ज्ञानी ह्रदय, महापुरुष, मेरा भी मत मान लो,
तजो निराशा, नकारी भाषा, आाशा स्वर भी जान लो,
मैं भी पीड़ित, आप भी पीड़ित काँग्रेस नाम विकार से,
अाअो समृद्धि भी अब देख ले नमो नाम प्रतिकार से !!
स्वयं :
एक प्रधान थे मौन हमेशा घोटालों और स्कैम पर
अब प्रधान भी शांत रहेंगे गैस मुकेश के नाम पर


भक्तों को साष्टांग नमन हैँ चुप जटिल सवाल
पर शुक्र नहीं है बिकनेवाला अपना केजरीवाल


लगे आग डीज़ल औ गैस अच्छे दिन का नारा है
पहले लूट रहे थे विरले अब गिरोह ह्मारा है


नींव निर्बल ढाँचा जर्जर है राजनीति नाकारी
बारी बारी खाया धोखा आशा पर ना हारी
हो सत्य तुम्हारा कथन मित्र औ मिथ्या बात हमारी
चमत्कार को नमस्कार हो अच्छे दिन की बारी


स्वयं :
फैलाया खूब रायता औ खूब मचायी गॅध
कलम को अब विश्राम दें कर ये जुगल बन्द


प्रथम संस्करण 

Sunday, May 11, 2014

माँ

#१
साथ नहीं पर पास यहीं
ममता का एहसास वही
है तेरी हर याद काफी
खोजूँ क्यों भगवान कहीं

#२
तब ऊँगली थी राह बताती
पग पग अब भी साया है
साँसे धड़कन सीख दर्शन
सब तुझसे ही  पाया  है

Saturday, May 10, 2014

मंथन

पत्थर पड़े तो ग़म क्यों मीलों पर वो लगेंगे
स्याही पड़ी तो हम वो इतिहास जो रचेंगे

सागर से कह दो भेजे जितनी प्रबल हों लहरें
मंथन नहीं रुकेगा अक्खड़ अड़िग जो ठहरे

Wednesday, May 7, 2014

आगाज़

पीर ना परिहास से
ना रुके उपहास से
एक अदना आदमी 
चल पड़ा विश्वास से

जज़्बा है जज़्बात है
सत्य पथ शुरुआत है
नवचेतना की नींव पर
नवयुगी आगाज़ है 

Wednesday, April 23, 2014

बदलाव

धारा वही नैया नयी
पाएंगे कैसे साहिल सही

विनय

झुक जा ऐ बन्दे ये अच्छी निशानी
होते नहीं नत खाली जो मस्तक 
ठोकर से ना कर परहेज़ इतना 
उठकर तू लिख़ दे ज़माने की किस्मत 

Tuesday, April 22, 2014

अंतर के अंतर

न रोको दहकते मरुस्थल की बारिश
नफरत के टीले पिघलना ज़रूरी
न बाँधो महक आस्था की परस्पर
है अंतर के अंतर का भरना जरूरी

तिनके

ये तिनकों की बढ़ती हिमाकत तो देखो
हवाओं के रुख भी बदलने लगे हैं
अहम् से जो धरते थे पग अम्बरों पर
धरती के कम्पन से डरने लगे हैं

Monday, April 21, 2014

तेरा रब मेरा रब

#1

पहले पहली साँस से, क्या था धर्म मेरा
बाद आखिरी साँस के, क्या होगा मज़हब तेरा

#2
तज रोष द्वेष आवेश समझ
जो तेरा रब सो ही मेरा रब

एक वो और एक सब

रब की जय औ राम हाफ़िज़ आओ मिलकर हम कहें
एक वो और एक सब फिर क्यों हम आपस में लड़ें
धर्म का यह मर्म जितना गूढ़ उतना ही सरल
मोड़ दें अब रुख हवा का जो हैं फैलाती गरल
साल सड़सठ बाद भी ना रुका गर यह चलन
क्या उठे फिर क्या बढ़े यदि हो रहा मानव हनन

जुगलबंदी अभिषेक दुबे के साथ

हम दो "फेसबुक मित्रों" ने जब अनायास ही राजनीति पर यह संवाद छेड़ा था तब यह कल्पना नहीं थी की वह एक दिलचस्प जुगलबंदी का रूप ले लेगी।  मैं अभिषेक दुबे का धन्यवाद प्रकट करना चाहता हूँ क्योंकि अनजाने में उन्होंने मेरी कविता लिखने की रूचि को पुनर्जागृत कर दिया है :)


अभिषेक
वोट इतना दीजिए जा में कमल खिल जाये,
अरविन्द बाबू खाँसते रहें, पर जनता नरेन सुहाये!!

स्वयं
इतना ही मत दीजिये कि कमल न उन्मत होय 
कुर्सी मिले नरेन को पर नकेल अरविन्द की होय 

अभिषेक
प्रशंसक अरविन्द के, पन्डित राकेश कविराये
पर जनमानस के जनहित का, नरेन ही सकल उपाय !!

स्वयं
नहीं नरेन् उपाय मूढ़ सब धोखा है 
झाड़ू दो चलाय अभी भी मौका है

अभिषेक
उनचास दिवस और पंद्रह बरस बोले मेरी वाणि ,
किसका धोखा, कौन मूढ, सर्वविदित ये कहानी !!
 
स्वयं
विष घोले जो विश्व में, छल को कहें विकास 
ख़ास खा रहा आम है, आम रहा है खाँस

अभिषेक
खाँस खाँस के खास बने जो गया मझधार से भाग,
उसके गरल को विचार लो जो स्वयं ही विषधर नाग !!
 
स्वयं
विकृत विचित्र विडंबना, सोचूँ मैं असहाय 
विषधर कहें नीलकंठ को, निश्चर पूजे जाए 

अभिषेक
क्षोभित असहाय अग्रज से हुए नीलकंठ बदनाम
तजता हूं ये विवाद अब कर कोटि कोटि प्रणाम !!!

स्वयं
विवाद नहीं संवाद है, जो तजे भगोड़ा कहलाये 
हर हर को बदनाम करे, औ दोष केजरी पाये 

अभिषेक
 जड़मति अभिषेक है, जो भँइसन बिन बजाये
दोषि को निर्दोषि माने, तजे भगोड़ा बन जाये !!! 

अभिषेक
तजो द्वेष उन्माद सखा तुम , मोदि वेग प्रचन्ड
नमो नमो ही जप रहा, हर गाँव जिला प्रखण्ड !!


स्वयं
द्वेष बैर उन्माद देन है नमो रूप एक दानव की 
जहर, कहर को लहर बताते नहीं फ़िक्र जिन्हें मानव की

अभिषेक
कुंठित विचलित ह्रदय, विस्मित उग्र विचार
मानव को दानव कहें, दिग्भ्रमित दुष्प्रचार ? ?

स्वयं
भ्रम दिग्भ्रम में माहिर शख्स शाह अमित बहुचर्चित 
बदले को बदलाव समझते दंगों से अति परिचित

अभिषेक
 सत्य सनातन ज्ञान हो, सुमति युक्त "विवेक"
नमो रहे या "आप" रहो, सुशील ही हो "अभिषेक"

स्वयं
नहीं "सुशील" "नरेन्" वो, जिनका है अभिषेक 
कथनी करनी के अंतर से, कहलाये जो फेक
 
स्वयं
एक ओर दुष्पाप है एक ओर है आप
झाड़ू लाओ साफ़ करो छोडो मोदी जाप

अभिषेक
झाड़ू लेकर आये थे, बन के पालनहार
जगी सुबुद्धी एैसी, स्वयं का हुअा संहार ??

स्वयं
 फँसा रहे वह दिल्ली में, चाहते काक समूह
जीतेगा वह देश सकल, जिसने तोड़ा ब्यूह

अभिषेक
व्यूह तोड़ता है अर्जुन, योद्धा वीर महान,
रिपु मन भाये पीठ दिखाये, जो आपका अभिमान!!  (Ripu ::Congress)

स्वयं
कलयुगी कुरुक्षेत्र का रणछोड़ है औ पार्थ वो ,
झेलता अपमान, पीड़ा जूझता निस्वार्थ वो
 
स्वयं
 हो रहे गदगद जो उसके फूले आहत गाल पर ,
कल उन्हीं की पीढ़ियाँ फूलेंगी उस लाल पर

अभिषेक
मनुज नही निर्मम इतना, पीड़ा पाये उमंग,
आप पुरुषार्थी ज्ञानी, क्यों समझे हमे भुजंग??
 
स्वयं
 धन्य तुमको मित्र इतने प्यार सैयम साथ का,
 मन कहे चलता रहे यह सिलसिला संवाद का,
 आओ अब विराम दें हम इस सुखद प्रयोग को,
छेड़ेंगे यह तार फिर से जब नया संयोग हो

अभिषेक
 करबद्ध नमन अभिनन्दन, श्रेष्ठ कवि राकेश का,
 हिन्दी ही है मानक,अखंड भारत के परिवेश का !!!

दाग़


लहू लाल
बहा गिरा 
थमा जमा
बना दाग़ ।
 
#2

धर्म-छल से छली
अधर्म-बल की बलि
कटी दबी ज़बान पर
लगा दाग़ ।
 
#3

रुके अथक प्रवाह सा
गुनाह के ग़वाह सा
ज़िद्दी ढ़ीठ सा
खड़ा दाग़ ।

दस्तक

दस्तक देता रहता है कि सुन सके अपनी ही दस्तक "मैं" मैं को शक है अपने होने पर मैं को भय है अपने न होने का