Friday, December 11, 2020

सड़ांध

ऊंची उठती रही
अहम् भीत 
और मैं 
घटता रहा

छेद किये हैं कुछ
इस दीवार पर अब
और मैं 
उठने लगा हूँ

नाम, जाति, 
धर्म और देश के 
बाँध से थमे 
कुंठित पानी की 
सड़ांध कम हो रही है

और मैं
बहने लगा हूँ 

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दस्तक

दस्तक देता रहता है कि सुन सके अपनी ही दस्तक "मैं" मैं को शक है अपने होने पर मैं को भय है अपने न होने का