Monday, October 19, 2020

कलसा

कल और कल

से भरा

खाली रहा

कलसा


एक बूंद

अब से

लबालब भरा

कलसा

और

और

रूप

वस्त्र

साधन

उपलब्धियाँ 

ज्ञान

पहनता रहा

मैं


और

कम

अधूरा

खाली

दिखता रहा

आईना


फिर

उतारा

मैं

मैंने


और

सैलाब

हो गया

आईना

Sunday, October 18, 2020

घाव

 कुछ अपने

कुछ अपनाए हुए

बीते क्षणों

के घाव लिए

घायल

घूम रहे हैं

हम सब


कर्म के

शर्म के

धर्म के

मर्म के

इन घावों

के आदी 

हो गए हैं

हम सब


व्हाट्सएप

और टीवी से

हर रोज़

इन घावों को

कुरेदते हैं

हम सब


इन घावों

और उनमें जमा

घृणा-पीब को

कोई शत्रु

प्रेम-मरहम से 

छरछरा न सके

इसलिए सतर्क

रहते हैं

हम सब

Friday, October 16, 2020

हाशिया


रह लेने दो मुझे
अपनी किताब
के हाशिये पर

नहीं करूँगा
मैं हस्तक्षेप
तुम्हारी कहानी में
नहीं संभालूँगा
तुम्हें गिरने पर
न रोकूँगा
तुम्हारी उड़ान

न पढ़ूँगा
तुम्हारी किताब
न व्यक्त करूँगा
अपने विचार
प्रशंसा
या आलोचना

जब तुम
अकेली होगी
तो मैं तुम्हें
अकेली रहने दूँगा
पर तुम
अकेली नहीं होगी

इसलिए
रह लेने दो मुझे
अपनी किताब
के हाशिये पर

Thursday, October 15, 2020

नाम

सारे नाम

धीमे-धीमे

रखता रहा

घर के बाहर


प्रेम

धीमे-धीमे

बढ़ता रहा

घर के भीतर


नाम

ढक लेते हैं

पहचान को

अँधेरे की तरह


साफ़ है सब 

रोशनी है अब  

Sunday, October 4, 2020

खोज

मैं

ढूंढता रहा

खुद को

शब्दों,

विचारों,

स्थितियों,

परिस्थितियों,

आवाजों,

रोशनियों,

में


वह

इंतजार करता रहा

मेरा

इन सभी के 

बीच बैठे

इन सभी को 

समाए हुए

शून्य,

शान्त,

अंधेरे,

अंतराल

में


मैं

दौड़ता रहा

खुद को

पाने को


वह

खड़ा रहा

यहीं

अभी

हमेशा से

मेरे लिए


अब

मैं

थम गया हूँ

और

उसने

मुझे

थाम लिया है


अब

मैं नहीं

वह नहीं

बस

शून्य

शान्त

अंधेरा

सूक्ष्म

विस्तृत

अंतराल है

सबूत अपर्याप्त हैं

वह विवादित ढांचा

जिसे संविधान कहते हैं

गिराया जा रहा है

रोज़ ब रोज़

पर किसी साजिश के

सबूत अपर्याप्त हैं


वह असहाय अस्मिता

जिसे न्याय कहते हैं

नोची, जलाई जा रही है

रोज़ ब रोज़

पर किसी साजिश के

सबूत अपर्याप्त हैं


अदालत का फैसला है

कोई जिम्मेदार नहीं

बाइज्ज़त बरी हों

आरोपी सारे


और आरोपियों से

निवेदन है उस

ढांचे के बदले

भव्य मंदिर बनाएं


न्याय हो न हो

न्याय की भव्य

मूर्ति हो

पूजा हो

रोज़ ब रोज़

Friday, October 2, 2020

बापू लौट जा

यहाँ हर हृदय में

फासला समाया है

हमने अपना कलंक

मुकुट पर सजाया है 

बापू लौट जा

ये देस पराया है


सत्य की कब्र पर

रक्त जमाया है 

हमने राम मन्त्र से

नाथू पनपाया है

बापू लौट जा

ये देस पराया है

दस्तक

दस्तक देता रहता है कि सुन सके अपनी ही दस्तक "मैं" मैं को शक है अपने होने पर मैं को भय है अपने न होने का