Friday, October 2, 2015

छलावा

चाहा बिखेरें रौशनी इस शहर में
खबर क्या उन्हें है अँधेरे की लत

शीशा बदल कर जो इतरा रहे हैं
नवाक़िफ़ न ऐसे बदलती है सूरत

छुपाये हैं धब्बे चमक से पराई
शातिर है चंदा छलावे की मूरत

(11-Oct-14)

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दस्तक

दस्तक देता रहता है कि सुन सके अपनी ही दस्तक "मैं" मैं को शक है अपने होने पर मैं को भय है अपने न होने का