Friday, June 17, 2016

गीत


सांझ ढले मेरी आँखों में
तस्वीर सी इक खिंच जाती है
अनदेखी अनजानी सी
टेढ़ी मेढ़ी रेखाओं के जालों सी

खूब वो मन को भाती है जब
इन्द्रधनुष की सतरंगी पोशाकों में
झिल मिल तारों की कुटिया से
वो झांक मुझे मुस्काती है


वसंत पुष्प के अधरों सी
नदिया के निर्झर निनाद सी
भोर किरण की लाली सी
जब मन पर छा जाती है


मैं भाव कुंज में खो जाता हूँ
यादों के तारों से झंकृत
गीत वो फिर दोहराता हूँ
गीत वो फिर दोहराता हूँ

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दस्तक

दस्तक देता रहता है कि सुन सके अपनी ही दस्तक "मैं" मैं को शक है अपने होने पर मैं को भय है अपने न होने का