Sunday, May 1, 2016

रावण

कलियुग रावण महिमा अद्भुद, हार गए श्री राम
मन मंदिर मर्यादा हर ली, ले पुरुषोत्तम नाम
(१५-अप्रैल-२०१६)

गीली रेत

शुष्क रेत
तटस्थ, विरक्त
लहरों से दूर
सीपियों के
मरघट सी

प्रवाहित रेत
उठती गिरती
हर लहर के साथ
कमजोर

गीली रेत
सोख लेती सहज
उठती लहर को
तज देती सहज
गिरती लहर को

मुझे बनना है
गीली रेत
अपना कर
हर उठते गिरते
अनुभव को

बिना बहे
बिना सूखे

(०७-अप्रैल-२०१६)


भारत भक्ति

सलीम खान अचरज में है यह कविता मैंने कब बुन ली
नहीं कही जो बातें मैंने भक्तों ने वो कैसे सुन ली

ज़ी छी टीवी के करतब से वैश्या हर शर्मिंदा है
सुपारी वीडियो चलाता कहता गन्दा है पर धंधा है

दाल के दर्शन दुर्लभ पर तुम दंगे कलह लगाते हो
हिन्दु मुस्लिम काट बाँट सत्ता की रोटी खाते हो

भगवा भगत अवरोही कट्टर, हिंदू हिंद बदनाम करें
आओ जोड़े जन मानस मन, भू भारत के भक्त बनें

(सलीम खान के मत्थे मढ़ी गई निम्न "कविता" के प्रत्युत्तर स्वरुप, २०-मार्च-२०१६ )

दस्तक

दस्तक देता रहता है कि सुन सके अपनी ही दस्तक "मैं" मैं को शक है अपने होने पर मैं को भय है अपने न होने का