विशाल वृक्ष सा
अथाह ब्रह्म में
फैलाए अनगिनत
टहनियां
समय
अनवरत टहनियों सा
बिखेरता स्मृतियों के
तिनके
तिनके समेट
तनिक तनिक
तन-घोसला बनाती
रूह
खेल
खेल रहे
निरंतर
रूह
और
ब्रह्म
दस्तक देता रहता है कि सुन सके अपनी ही दस्तक "मैं" मैं को शक है अपने होने पर मैं को भय है अपने न होने का