Friday, June 17, 2016

गीत


सांझ ढले मेरी आँखों में
तस्वीर सी इक खिंच जाती है
अनदेखी अनजानी सी
टेढ़ी मेढ़ी रेखाओं के जालों सी

खूब वो मन को भाती है जब
इन्द्रधनुष की सतरंगी पोशाकों में
झिल मिल तारों की कुटिया से
वो झांक मुझे मुस्काती है


वसंत पुष्प के अधरों सी
नदिया के निर्झर निनाद सी
भोर किरण की लाली सी
जब मन पर छा जाती है


मैं भाव कुंज में खो जाता हूँ
यादों के तारों से झंकृत
गीत वो फिर दोहराता हूँ
गीत वो फिर दोहराता हूँ

Monday, June 13, 2016

पंख

उपजा
शून्य से
मैं

मैं
पंख
पंख एक
गुरुत्वहीन
चिर
सतत

बैठा
क्षण पर
क्षण एक
समयहीन
चिर
सतत

समेटे
अधर को
अधर एक
अथाह
चिर
सतत

इंतज़ार में
शून्य के
शून्य एक
मूक
स्याह
चिर
सतत

उठा लेगा
शून्य
इस पंख को
परे क्षण से
परे अधर से
नए भ्रमण पर
चिर
सतत

दस्तक

दस्तक देता रहता है कि सुन सके अपनी ही दस्तक "मैं" मैं को शक है अपने होने पर मैं को भय है अपने न होने का