सांझ
ढले मेरी आँखों में
तस्वीर
सी इक खिंच जाती है
अनदेखी
अनजानी सी
टेढ़ी
मेढ़ी रेखाओं के जालों सी
खूब वो
मन को भाती है जब
इन्द्रधनुष
की सतरंगी पोशाकों में
झिल मिल
तारों की कुटिया से
वो झांक
मुझे मुस्काती है
वसंत
पुष्प के अधरों सी
नदिया
के निर्झर निनाद सी
भोर
किरण की लाली सी
जब मन
पर छा जाती है
मैं भाव
कुंज में खो जाता हूँ
स्मृति के तारों से झंकृत
गीत वो
फिर दोहराता हूँ
गीत वो
फिर दोहराता हूँ
(२९ वर्ष पुरानी रचना (१९८५)